महिलाओं में क्रॉनिक किडनी डिसीज (सी के डी) पुरुषों के समान ही गंभीर खतरा है, बल्कि महिलाओं में सीकेडी विकसित होने की आशंका पुरुषों से 5 प्रतिशत अधिक होती है। सीकेडी को बांझपन और सामान्य गर्भावस्था व प्रसव के लिए भी रिस्क फैक्टर माना जाता है। इससे महिलाओं की प्रजनन क्षमता कम होती है और मां और बच्चे दोनों के लिए खतरा बढ़ जाता है। जिन महिलाओं में सीकेडी एडवांस स्तर पर पहुंच जाता है, उनमें हाइपस टेंसिव डिसऑर्डर और समयपूर्व प्रसव होने की आशंका काफी अधिक हो जाती है। कई लोगों को यह जानकर हैरानी हो सकती है कि मुट्ठी केआकार का अय्ह अंग हमारे स्वास्थ्य और जीवन में इतनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है।
किडनी संबंधी गड़बड़ियों के कारण?
किडनी रोग मुख्यतः डायबिटीज, उच्च रक्तदाब और धमनियों के सख्त होने से होते हैं। हालांकि इन रोगों में से कई किडनियों के सूजने के कारण भी हो सकते हैं। इस स्थिति को नेफ्राइटिस कहते हैं। मेटाबॉलिक डिसॉर्डर के अलावा कुछ ऐनाटॉमिक डिसॉर्डर के कारण भी किडनी संबंधी बीमारियां हो जाती हैं। ये माता-पिता दोनों से विरासत में मिलती हैं, मगर दूसरे कारण भी हो सकते हैं। जैसे उस तंत्र में रुकावट आ जाना जिससे तरल पदार्थ किडनियों से बाहर निकलते हैं। चूंकि किडनी रोगों के कारण अलग-अल हो सकते हैं, उसी प्रकार से विभिन्न रोगियों में इसके लक्षणों में भिन्नता पाई जाती जा सकती है। कुछ सामान्य लक्षणों में बहुत अधिक या बहुत कम यूरीन, यूरीन में रक्त आना या रसायनों की मात्रा असामान्य हो जाना भी सम्मिलित हैं।
बच्चों में किडनी से संबंधित समस्याओं के बढ़ते मामले:
भारत में बच्चों में किडनी फेलियर के मामले बहुत तेजी से बढ़ रहे हैं। 20 प्रतिशत भारतीय बच्चे किडनी रोगों से पीड़ित हैं। बच्चों को स्वस्थ और बीमारियों से दूर रखने में माता-पिता की महत्वपूर्ण भूमिका है। खानपान ठीक रखें, पानी भरपूर पिएं, धूम्रपान न करें, दवाइयों तथा सोडियम का सेवन कम करें।
पोटेशियम बढ़ा दें:
पोटेशियम शरीर में पानी के स्तर को संतुलित रखता है और सोडियम के प्रभाव को कम करता है,इस प्रकार से ब्लड प्रेशर को कम करता है। इसलिए यह महत्वपूर्ण है कि बच्चों को पोटेशियम से भरपूर भोजन (आलू, पालक,फलियां, कम वसायुक्त डेयरी प्रॉडक्ट्स) दिए जाएं।
उपचार के रास्ते क्या हैं?
संक्रमण को एंटी बायोटिक्स से भी ठीक किया जा सकता है, अगर संक्रमण बैक्टीरिया के कारण हो। एक्यूट किडनी फेलियर के मामलें में रोग के कारणों का पता लगाना सबसे ठीक रहता है। इस प्रकार के मामलों में, कारणों का उपचार करने से किडनी के कामकाज को सामान्य बनाया जा सकता है। किडनी फेलियर के अधिकतर मामलों में रक्तदाब को सामान्य स्तर पर लाया जाता है, ताकि रोग को और अधिक बढ़ने से रोका जा सके। जब किडनी फेलियर अंतिम चरण पर पहुंच जाता है तब उसे केवल डायलिसिस या किडनी ट्रांसप्लांट द्वारा ही नियंत्रित किया जा सकता है। डायलिसिस सप्ताह में एक बार किया जा सकता है या इससे अधिक बार भी, यह स्थितियों पर निर्भर करता है। प्रत्यारोपण में बीमार किडनी को स्वस्थ किडनी से बदल दिया जाता है। प्रत्यारोपण के 80 प्रतिशत मामले सफल रहते हैं। प्रत्यारोपण के मामले में केवल एक ही डर रहता है, शरीर कहीं प्रत्यारोपण को अस्वीकार तो नहीं कर देगा। हालांकि यह जोखिम लेना जरूरी है क्योंकि स्वस्थ किडनी आपको बेहतर जीवन जीने में सहायता कर सकती हैं।
डायग्नोसिस कैसे होता है?
सबसे वास्तविक समस्या तो इस रोग का डायग्नोसिस करने में हैं क्योंकि जब तक किडनी में ट्यूमर या सूजन न हो, डॉक्टरों के लिए केवल्डिडनियों को छूकर चेक करना कठिन हो जाता है। वैसे कई टेस्ट हैं, जिनसे किडनी के ऊतकों की जांच की जा सकती है। यूरीन का नमूना लें और इसमें प्रोटीन, शुगर, रक्त और कीटोंस आदि की जांच करवाना जरूरी होता है।
डॉ. सुदीप सिंह सचदेव, कंसलटेंट – नेफ्रोलॉजी, किडनी ट्रांसप्लांट – एडल्ट, नारायणा सुपरस्पेशलिटी हॉस्पिटल, गुरुग्राम
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